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रात को तो जितना ही था
दिन पर राज़ जो करना था
कितना दिन रुकता आखिर
समय पर साम्राज्य फैलाना था।।

खामोसी के पीछे कब तक भागता
कल्पना के घोड़े कब तक हांकता
अंधेरों में कब तक जागता
रात पर विजय पताका लहराना ही था।।

मुझे तो जितना ही था
समय से आगे जाना ही था
कोई कुछ बोले परवाह किसे
बुलंदियों तक पहुँचना ही था।।

चार दिवारी कब तक रोकती
सड़क पर आ कर मुझको
हर आने-जाने वाले को
विजय गीत सुनना ही था।।

सफलता-असफलता के चक्र तोड़
चक्रवर्ती मुझे बनना ही था
परिभाषा से कब तक गुज़र होता
परिणाम मुझको पाना ही था।।

किसी ने यह कहाँ
किसी ने वह कहाँ
सबकी कब तक सुनता
खुदकी मुझको करना ही था।।

बिना वजह धूल नहीं उड़ाता
रेत पर महल नहीं बनाता
कुछ तो हवाओं ने कहाँ
ऐसे ही सिकंदर कोई नहीं बन जाता।।

आप तो बस देखते जाइये
आगे-आगे होता है क्या
अभी तो बस शुरुआत है
वक़्त को पलटना ही था।।
@अजय कुमार सिंह


ajaysingh

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