गुलाब नगर-2



प्रेम की परिभाषा गढ़ते
लगता है थोड़ी दूर आ गया
पीछे मुड़कर जब देखा
पाया शाम ढल गया ।।

प्रेम शब्दों का ताना-बाना है
या भावनाओं का प्रवाह
जिंदगी सूखी नदी है
जो प्रेम की धार नहीं है

प्रेम पागलपन का एहसास है
सब कभी ना कभी बौराया है
दूर फैली हरियाली को देखो
पत्तों पर पानी की बूंदों को देखो
सब प्रेम की माया है।।

प्रेम शरीर से परे है
सृजन इसका आधार
संवेदनाएं प्रधान एहसास है
आकर्षण से होता इसका विस्तार।।

आकर्षण महज शुरुआत है
विशाल है प्रेम
मौन की अभिव्यंजना में
सुखद अनुभूति देता है प्रेम।।
।।अजय।।

ajaysingh

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