मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं

20161118_104838कई बार सोचता हूं कि क्‍या मैं वहीं हूं जो कुछ सालों पहले था। और क्‍या में वहीं रहूंगा जो मैं अब हूं। फिर मैं कौन हूं यह कौन मुझे बताएगा। मेरे अंदर का भेद कौन समझाएगा। मेरे अंदर का भ्रम कौन मिटाएगा।

कभी लगता है शायद सब कुछ समझ रहा हूं और अचानक सब कुछ विलीन हो जाती है। जैसे कुछ था ही नहीं। मतलब यह कि जितना ज्‍यादा जानने की कोशिश करता हूं मैं खुद को उतना कम जान पाता हूं। और जितना ज्‍यादा खुद से भागता हूं उतना ज्‍यादा खुद से घिरा पाता हूं। अपने वजूद को तलाशते-तलाशते थक गया फिर भी इसका ओर-छोर नहीं मिलता। और जब थक कर बैठ जाओ तो अचानक एक नई राह सामने दिखाई देती है। सब जानते हुए भी मैं खुद के अंदर की सफर शुरू कर देता हूं एक नई उम्‍मीद के साथ की इस बार शायद कुछ नया जानने को मिलें। पर मन ही मन यह डर बना रहता है कि कहीं मैं उसी चौरहें पर तो आ के खड़ा न हो जाऊं जहां से मैं चला था। और फिर से मुझे खुद से पूछने की जरूरत महसूस हो कि मैं कौन हूं।

क्‍या मैं वह अनसुलझा पहेली हूं जिसे खुद से सुलझने की आदत नहीं या फिर वह अंधेरा हूं जो उम्‍मीद  की एक लौ की तलाश में खुद के अंदर भटक रहा है। अभी उम्‍मीद ठीक से जागी भी न थी कि मुझे मेरी ही नजर लग लगी। फिर से अपने अंदर उन बदनाम गलियों की ओर चल पड़ा जहां जाने से मैं डरता हूं। मैं कहीं वहीं का न होकर रह जाऊं यह भी मैं सोचता हूं। फिर अपने मन ही मन में सोचता हूं मैं कौन हूं।

अभी कल ही तो गांधी-नेहरू- विवेकानंद सब बनने का सोचा था और आज फिर से मैं, मैं बन बैठा। मैं कितना बदला और कितना बदलूंगा यह वक्‍त तय करेगा या मैं तय करूंगा? अपने अंदर झांकों तो सवाल ज्‍यादा और जवाब कम पाता हूं। रास्‍ते ज्‍यादा और मंजिलें कम पाता हूं। आर्दश ज्‍यादा और सच्‍चाई कम पाता हूं।

आर्दशों से कहां मैं खुद को गढ़ पाता हूं। अपनी सच्‍चाई से हार कर आर्दशों से ठकराता हूं। आर्दशों के साथ उठा-पठक कर के मैं,  मैं को ठिकाने लगाता हूं। मैं हमेशा मैं से बचता हूं और बचते-बचते उसी के आगोश में थक कर सो जाता हूं। फिर उसकी बारी आती है और वो मुझ से खेलता हैं। मैं, मैं मे हूं या मैं मुझ में हैं आज तक पता नहीं चला। जैसे ही पता चलता हैं मैं, मैं नहीं रहता कुछ और हो जाता हूं।  मेरे कितने रूप हैं यह मैं भी नहीं जनता। रोड का मैं, रूम का मैं, बाथरूम का मैं, चाय दूकान का मैं और इन सब के उपर का मैं जो हर मैं मे होता भी हैं और नहीं भी हैं। शायद मेरे होने और नहीं होने के बीच में ही मैं हैं। छुपा हुआ, संदिग्ध, गुरिल्‍ला युद्ध में माहिर पलक झपकते मेरे सवाल को जो तार-तार कर दें। मेरे वजूद को पता नहीं किस मैं मे मिला दें। मिलन-टूटन से ही तो बना है मेरा मैं।

शब्‍द अकेला पर पूरा ब्रह्मांड  में विस्‍तार पाता है मेरा मैं। चांद-तारे और कई नजारें तोड़ लाता है मेरा मैं। मैं, मैं मे ही हूं यह भी बताता है मेरा मैं। कभी तुलनात्‍मक तो कभी भावनात्‍मक बनाता है मेरा मैं। शब्‍द, द्श्‍य और भाव में प्रकट होता है मेरा मैं। सबसे घिरा पर फिर भी विरान है मेरा मैं। सबके बीच रहते हूं भी अंजान है मेरा मैं। कल से आज तक पता नहीं चला कहां है मेरा मैं।

सच है कि मेरे मैं से किसी तुम की तुलना नहीं हो सकती। ठीक उसी प्रकार जैसे कि किसी तुम से मेरे मैं कि तुलना नहीं हो सकती। तुम-तुम हो और मैं-मैं हूं। कोई विशेष नहीं केवल शेष है मेरा मैं। तुम्‍हारा ही विस्‍तार हैं मेरा मैं। तेरे परिधि को ही भेदता है मेरा मैं। तुमसे ही लड़ कर हारता है मेरा मैं। अपने अंदर ही खुश रहता है मेरा मैं। फिर भी मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं इस द्वैत के सामने दहाड़ता है मेरा मैं। एकात्म को स्थापित करना चाहता है मेरा मैं। अंत क्‍या कहूं शुरूआत है तुझ से मिला मेरा मैं। तेरे आस-पास है मेरा मैं। तुझे महसूस करता है मेरा मैं। सब ठीक है पर मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं कड़वा सच स्‍वीकार नहीं करता है मेरा मैं।

एक बार फिर से अनजान राहों पर चल पड़ा है मेरा मैं। लड़ता-झगड़ता और गिरता-पड़ता बढ़ चला है मेरा मैं। मुझे नहीं पाता कहां ले जाएगा मेरा मैं। करता हैं वादा कि बेहतर कल दिखाएगा मेरा मैं। फिर वहीं सवाल क्‍या मैं के क्षितिज को पार कर पाएंगा मेरा मैं?

 

 

ajaysingh

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