एक बार ज़ुबा पर
एक बात आई
होठ थर्रा उठी
बात निकल न पाई।।
एक बात आई
होठ थर्रा उठी
बात निकल न पाई।।
तलाश में जिसकी
कटी उम्र मेरी
जब वह सामने थे
लब हिलना पाई।।
जब वह सामने थे
लब हिलना पाई।।
महसूस हो रही थी
तपन उनकी
शब्द खामोश थे
नजरें उठ न पाई।।
तपन उनकी
शब्द खामोश थे
नजरें उठ न पाई।।
बहुत करीब थे मेरे वो
भाव उमड़ रहे थे
मौन टूट ना पाई।।
भाव उमड़ रहे थे
मौन टूट ना पाई।।
उनका साथ अनोखा था
जैसे सपना कोई
डर था टूटे ना
पर यह होना पाई।।
जैसे सपना कोई
डर था टूटे ना
पर यह होना पाई।।
विरान हुई
जिंदगी मेरी
रह गई तन्हाई
संभाले संभल ना पाई।।
जिंदगी मेरी
रह गई तन्हाई
संभाले संभल ना पाई।।
चौराहे पर खड़ा
तकता लोगों को सोचता हूं
वजह क्या थी जो
अपनी कहानी बढ़ ना पाई।।
तकता लोगों को सोचता हूं
वजह क्या थी जो
अपनी कहानी बढ़ ना पाई।।
खुद से भागता फिरता हूं
यहां-वहां
अंदर भी बाहर भी
खुद से कभी बन न पाई ।।
यहां-वहां
अंदर भी बाहर भी
खुद से कभी बन न पाई ।।
उनकी याद जब आती है
नश्तर बनकर बीध जाती है
मूर्छित पड़ा रहता हूं
तन्हाई मैं कई बार।।
नश्तर बनकर बीध जाती है
मूर्छित पड़ा रहता हूं
तन्हाई मैं कई बार।।
खामोश हूं
बोलने को शब्द नहीं
तकदीर क्या रूठी
समझो रूठ गई
सारी खुदाई।।
बोलने को शब्द नहीं
तकदीर क्या रूठी
समझो रूठ गई
सारी खुदाई।।
एक बार जुबां पर
एक बात आई
होठ थर्रा उठी
बात निकल ना पाई।।
एक बात आई
होठ थर्रा उठी
बात निकल ना पाई।।
-अजय कुमार सिंह
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रहस्य