महफ़िल



मुद्दत बीत गया
दिल से हंसे
ठीक से याद नहीं
पिछली बार कब
खुलकर हंसा था।।

कौन सी ताकत है
जो न खुलकर हंसने देती है
न खुलकर रोने देती है
न खुल कर बोलने देती है।।

मौन के पथ पर ऐसा बढ़ा
अभिव्यक्ति की अभिलाषा
ही शिथिल हो गई।।

चार दिवारियों ने
ऐसा घेरा मुझे
सारे महफ़िल से
जुदा हम हो गए।।
@अजय कुमार सिंह

ajaysingh

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