मुसाफ़िर -3

अंधेरे का सिपाही हूं
रातों में बेखौफ घूमता हूं
जब मिलता है कोई हमसफ़र
दुआ-सलाम करता हूं।।
पथरीले रास्तों के आगे
कहीं कोई फूल खिला होगा
तलाश में उसकी
ज़र्रे-ज़र्रे की ख़ाक छानता हूं।।
जिस्म थका सही
इरादें बुलंद मेरे
अभी-अभी होश संभाला है
जितने को दुनिया आगे।।
ए पगली पवन
क्यों इठलाती है
क्या मिटा भी पाएंगी
निशा मेरा ।।
-अजय कुमार सिंह

ajaysingh

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