मुसाफ़िर-5

बढ़ चला था आगे
परवाह किये बिना
चढ़ाई इतनी होगी
पता न था ।।
मंजर ऐसा होगा
जनता न था
सामने ऊंचाई थी
वीरान यह नज़ारा था।।
सांसे तेज़ हो
रही थी मेरी
वक़्त भी
थम सा गया था।।
चुप-चाप सीढ़ियां
चढ़ रहा था मैं
समय का यही
ईशारा था।।
कांप रहे थे पैर मेरे
हांफ रहा था मैं
तेज़ हो रही थी धड़कने
जल रहे थे नयन।।
अच्छा है जो
हक़ीक़त से सामना हुआ
कब तक खुद से भागता मैं
तन्हाई में रात काटता मैं।।
चल मन नई राहें
तलाशते है
खुद को फिर एक बार
तराशते है।।
-अजय कुमार सिंह

ajaysingh

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