समुंद्र सामने था
प्यासा मैं खड़ा था
मुझे झील की तलाश थी
नमक बहुत थी जिंदगी में मेरी
थोड़ी मिठास की मुझे आस थी।।
मुकद्दर ने जो मुकर्रर कर रखी थी
मुझे कहां मंजूर थी
हौसला तो इतना था
समुद्र को मैं झील समझ
पीने चला था।।
पता नहीं क्यों
समुद्र को ललकार बैठा
बोला मुझे राह चाहिए तुझसे
जैसे तूने कभी किसी
रघुवंशी को दिया था।।
बहुत घुमा भू लोक पर
अब पाताल घूमना चाहता हूं
हे समुद्र राह दे मुझे
तेरे पार जाना चाहता हूं।।
सुन ललकार मेरी
समुद्र ने प्रत्युत्तर दिया
तीन हिस्सा पानी
एक हिस्सा जमीन
कहां मेरे पार जाएगा
आ मुझ में जल समाधि ले
अथाह गहराई में मेरे
प्रचंड योग पाएगा।।
सुन समुद्र की बात
रोम-रोम मेरा हर्षित हुआ
योग पथ का मैं अन्वेषी
समुद्र का आमंत्रण स्वीकार किया
समुद्र के अथाह गहराई में
ध्यान करने चला।।
@अजय कुमार सिंह
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