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झाड़-झंकार, पर्वत-पहाड़
लंबे-लंबे वृक्ष
विशाल जंगल
लगता धरती से गगन तक
इनका विस्तार ।।
सभ्यता मौन पड़ा
प्रकृति चुप खड़ी
इस शून्य में लगा
महाकाल
महा योगी का दरबार ।।
शून्य से सुरूआत
शून्य में अंत
शून्य की न परिभाषा
जो शून्य को अनुभूत करे
उसे कहां मोह-माया और आशा ।।
वैराग्य के पथ पर योगी
ठेंगे पर दुनिया रखता है
महायोग के इस धरा पर
वीरानियों में भी
अठखेलियां करता है।।
अमरकंटक के यह नज़ारे
बस एक पाठ पढ़ाते है
योग की शरण में
ज्ञान-अज्ञान के भेद
मिट जाते हैं।। -अजय कुमार सिंह