पूर्णिमा



चांदनी रात में
गोरख पांडेय होस्टल
के छत पर चांद को
निहारते हुए सोचता हूं।।

बाहर चांदनी का उजाला है
अंदर अमावस का अंधेरा
अंदर मृत्यु की शांति है
बाहर जिंदगी का शोर है।।

अंधेरों और उजालों का
फैला ताना-बाना है
जैसे झूठ-सच से
सजा दरबार है।।

झींगुरो की आवाज़
कानों से टकराती है
ऐसा लगता है जैसे
शहनाई का शोर हो।।

चलो रात बहुत हुई
अब सो जाते है
दिशाएं खामोश है
हम भी चुप होते है।।
@ अजय कुमार सिंह

ajaysingh

cool,calm,good listner,a thinker,a analyst,predictor, orator.

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने