न जाने क्यों
लगा मुझे अभी
कि जैसे तुम
घुली हुई हो
फिजाओं में
इन हवाओं में
इन घटाओं में
रोम रोम के
एहसास में।।
मौसम ने
ओढ़ा रखी है चादर
आग की लपटों में
आकर्षण है
सांसों में ठंडक घुली है
दिल है की दरिया है
मन विशाल समंदर है।।
हौसले हिमालय से
टकरा रही है
बस तेरी कमी है
हुकुम दिया है
इन ठंडी हवाओं को
तेरा पता खोज
बताएं मुझे।।
यह शहर
यह गलियां
बेजार है वीरान है
चारदीवारी में कैद
यह शरीर निष्क्रिय है
निश-प्राण है
बिन तेरे यह जहां
सुनसान है
अब पता चला
तुम्हारे होने के
क्या मायने है।।
मैं तो मात्र शब्द हूं
अर्थ तो तुम हो
मैं तो मात्र भाव हूं
भावार्थ तो तुम हो
मैं तो मात्र शरीर हूं
प्राण तो तुम हो
मैं तो मात्र रास्ता हूं
मंजिल तो तुम हो
मैं तो राही हूं
कारवां तो तुम हो।।
@अजय कुमार सिंह
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प्रकृति