सोचा बारिश में
प्यार के पकौड़े तलुंगा
उम्मीदों की कड़ाही में
भावनों की तेल डाली ही थी कि
सब गुड़-मिट्टी हो गई
बीच मैदान ऐसे गिरे हम
देह का पुर्जा-पुर्जा ढीला हो गया
सारे अरमान कीचड़ में रह गये
किसी प्रकार खुद निकले
आसपास के लोग देखते रह गए
बिस्तार पर पड़े सोचता हूं
शरीर में दर्द है या दर्द में शरीर
समझ नहीं आता है
कोई ओझा-नईया है जो
भावनाओं और उम्मीदों का
भूत भगाता है।।
@अजय कुमार सिंह