कागज का टुकड़ा नहीं
जो गल जाऊंगा
मिट्टी का ढेर नहीं
जो बह जाऊंगा
रेत का टिलहा नहीं
जो उड़ जाऊंगा
कठिन परिश्रम की
तब जा कर
पैरों पर खड़ा हुआ।।
बारिश में भीगा हूं
धूप में जला हूं
रात ने ठंडक दी
हवा ने परखा
हरियाली ने संवारा
सूरज ने तेज दिया
तब जाकर बना हूं।।
निर्माण विखंडन की
प्रक्रिया से गुज़रा
कभी हंसा तो
कभी खूब रोया
कभी परिस्थिति ने
चुनौति दी
कभी हालात ने
हक़ीक़त बताई
तब व्यक्तित्व निर्माण हुआ।।
मुझे भी डर लगता है
गला मेरा भी सूखता है
पैर मेरे भी काँपते है
पर वो जो विज्ञापन में बोलता है
डर के आगे जीत है
सही है।।
@अजय कुमार सिंह
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