आग की लपटे
अब शांत हो रही थी
सुबह होने को आया
अंतिम प्रश्न का समय
हो आया था भक्त
भगवान से पूछता है।।
इंसान की कीमत क्या है
भगवान हंस पड़ते है
फिर जवाब देते है
इंसान जब प्रेम में होता है
वह बेशकीमती होता है।।
त्याग, बलिदान, सर्वस्व समर्पण
सेवा भाव, खोने की चाहत
उसमें प्रबल होती है
जाति, धर्म, राष्ट्र, समाज
के बंधन उसे नहीं बांधते
ऊर्जा के प्रवाह में होता है
यही मुक्त होना है
यही मोक्ष की अवस्था है।।
इंसान जब भोग के भाव में होता है
उसकी कीमत नहीं होती
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि
वह स्वयं खरीदार की भूमिका में है।।
उसमें अधिकार, अधिपतित्व, शासन
सत्ता, वैमनस्य, कटुता, छल- प्रपंच
सब भाव हावी होते है
खुद को ही सर्वे सर्वा मानता है।।
जाति, धर्म, संप्रदाय, मजहब, राष्ट्र
सब का प्रयोग कर
वह सत्ता, धन, सुख, ऐश्वर्य
प्राप्त करना चाहता है।।
इससे पहले की भक्त कुछ बोलता
भगवान खुद ही बोल पड़े
जाओ जाकर सो जाओ
जिस प्रकार मणिकर्णिका की आग
कभी नहीं बुझती
उसी प्रकार मनुष्य का जिज्ञासा है।।
@अजय कुमार सिंह